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Dandiya Raas
Vautha na Melaa maan
स्वरः किशोर मनराजा, जयश्री भोजविया और साथी
હેપ્પી કાર્તિકી પૂર્ણિમા
जो गुजराती गीत आप सुनने वाले है, उस के कुछ शब्द का हिन्दी भाषांतर इस प्रकार हैः
वौठा के मेले में धडकते मनोरथ,
नैनों के सौदागर, दिल को चुराते,
छैला, मेरा हाथ पकडके मुझे मेलेमें ले जा,
कि मेरी जवानी पूरी तरह से छूछी गुजर रही है.
१९९६-९७ में मैने यह धमाके से भरा गीत लिखा, उस की वैसी ही ्धमकती धुन बनायी, और गीत के सब वाजिन्र और रिधम दिल खोल कर बजाये, तब मैं पचास साल का था! मैं प्रामाणिकता से कह सकता हूं कि उस समय मेले में जा कर झूमने-घूमने के कोई ख्वाब नहीं देख रहा था. तो फिर ऐसा जोशीला आनन्दातिरेक आया कहांसे? जवाब हैः बचपन की स्मृतियों.
मेरी जिंदगी के पहले दस-ग्यारह साल गुजरात के खेडा जिले के एक छोटे से गांव ‘देथली’ में बीते थे. १९५० की आसपास, अभी सर पर मटकी रख कर पानी भर के ठुमक ठुमक चलने वाली सुंदर पनिहारीयों के, या बैल-गाडी चलाते किसानों के नजारे कवि की कल्पना के भावचित्र नहीं थे, बल्कि, मेरी हररोज की दिनचर्या से जुडे चित्र थे.
मेरे गांवसे कुछ पंद्रह किलो मीटर की दूरी पर, एक घूंट पानी की छोटी सी सात नदियों के संगम पर, वौठा गांव के मैदानमें हर कार्तिकी पूर्णिमा के समय पर मेला लगता है. हालांकि यह मेला बहुत बडा नहीं है, यह मेरे बचपन का एक अमूल्य हिस्सा है. मानसून की कड़ी मेहनत और अकेलेपन के बाद किसान कुछ मस्ती के लिए तैयार हो जाते हैं. बनिये की दुकान से नयी धोती और पगरी ला कर गांव की सुंदर गोरीयों पर एक-दो नजर भी लगा लेते थे.
लडकियों की तो बात ही और थी. नया घाघरा-चोली और ओढ़नी.
कोहनी तक हाथ भर जाय इतनी रंगबिरंगी कांच की चुडियां. लडकियों, औरतों का पागलपन यह थाः भले हाथ क्युं न कट जाय, कुछ चुडियां तूट क्युं न जाय,
लेकिन चुडियां एकदम छोटी होनी जरूरी थी.
मालुम नहीं क्यों. मेरी माताजी की छोटीसी किराने की दुकान थी, और वह लडकियों को छोटी चुडियां पहनाने के लिये मशहूर थी. हमारी दुकान के बरामदे पर चुडियों के लिये सुंदर लडकियों की भीड जम जाती थी. कुछ असुविधा भी होती थी. लेकिन यह छोटा सा कवि-दिल उस उम्रमें भी कन्याओं के सौंदर्य का चाहक था. मुझे कोई शिकायत नहीं थी.
पूर्णिमा के एक दो दिन पहले, भोर होने से पहले, गुलाबी ठंड की मझा लेते हुए किसान अपनी बैल गाडीयों सजाके मेले में जाने के लिये निकल पडते थे. हम व्यापारीओं के यहां बेलगाडीयां नहीं थी, लेकिन हमें कोई भी पड़ोसी किसान की बेलगाडीमें बैठ कर जाने का आमंत्रण मिलता था. उन दिनों में, जब गांव में बीजली, रेडियो या मनोरंजन के कोई साधन नहीं थे, तब मेले की वह भीड, तम्बू में लगे भुजिया-चाय के रेस्तरां, हिंडोले, रोलर-कोस्टर, यह सब जिवन में एक नयी ताजगी दे देते थे.
मेरे सब बच्चे अमरिका में पैदा हुए है, और वहीं बडे हुए है. वहां भी मेले तो लगते हैं. डालास, टेक्सास, जहां मेरा अमरिका का मुख्य निवास था, हर साल ‘स्टेट फेर ओफ टेक्सास’, लगता है. लेकिन वहां कार में जाते थे. वहां भी राईड तो होती है, लेकिन बडी. भुजिया के बदले में होट-डोग, हेम्बरगर, बार-बी-क्यु जैसी चीजें खाने के लिये मिलती है. यह वार्षिक मेले के अलावा सिक्स-फ्लेग्स नाम के थीम पार्क में तो हररोज मेला लगता है. वच्चों की कई सालगिराएं थीम पार्क में मनायी थी. कभी कभी डिझनीलेंड और डिझनी वर्ल्ड को भी जाते थे.
लेकिन बौठा के मेले के साथ उनकी तुलना नहीं हो सकती है. अब तो भारतमें भी छोटे गांवो में टी.वी. आ गये हैं, और गरीब लोग भी सेल-फोन पर संगीत सुन सकते हैं. इस लिये मेले में जाने का जो रोमांच हमें
मिलता था, अब नहीं मिल सकता है.
अगर आप आज वौठा के मेलेमें नहीं हो तो कोई बात नहीं है. मैं भी नहीं गया हूं. लेकिन अपने कम्प्युटर से स्पीकर जोडकर, वौठा के मेले का यह गीत बजा कर, जरूर नाचना.
घनश्याम ठक्कर.
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(Instrumental synchronized with original film video)